SWAMI NITYANAND
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बसंत के आसरे में नव पल्लव झर रहे हैं
यह कैसा विकास कर रहे हैं
पतझर के पट बौराने को व्याकुल हैं
सठियाये वृक्ष फल खाने को आतुर हैं
हक़दार गूदे के गुठलियों को गिन रहे हैं
यह कैसा विकास कर रहे हैं
पीने का इंतजाम गाँव गाँव गली गली
पानी को तरस रहीं कलावती रामकली
मजबूर पसीने से कहीं समुंदर भर रहे हैं
यह कैसा विकास कर रहे हैं
तट का आभाव ही तटस्थ भाव हो गया
पक्ष और विपक्ष में निष्पक्ष कहीं खो गया
sak
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